Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद



गोदान--मुंशी प्रेमचंद

खन्ना ने अधीर होकर कहा -- लेकिन हमारे सभी हिस्सेदार तो धनी नहीं हैं। कितनों ही ने अपना सर्वस्व इसी मिल को भेंट कर दिया है और इसके नफ़े के सिवा उनके जीवन का कोई आधार नहीं है।
मेहता ने इस भाव से जवाब दिया, जैसे इस दलील का उनकी नज़रों में कोई मूल्य नहीं है -- जो आदमी किसी व्यापार में हिस्सा लेता है, वह इतना दरिद्र नहीं होता कि इसके नफ़े ही को जीवन का आधार समझे। हो सकता है कि नफ़ा कम मिलने पर उसे अपना एक नौकर कम कर देना पड़े या उसके मक्खन और फलों का बिल कम हो जाय; लेकिन वह नंगा या भूखा न रहेगा। जो अपनी जान खपाते हैं, उनका हक़ उन लोगों से ज़्यादा है, जो केवल रुपया लगाते हैं। यही बात पण्डित ओंकारनाथ ने कही थी। मिरज़ा खुर्शेद ने भी यही सलाह दी थी। यहाँ तक कि गोविन्दी ने भी मजूरों ही का पक्ष लिया था; पर खन्नाजी ने उन लोगों की परवाह न की थी, लेकिन मेहता के मुँह से वही बात सुनकर वह प्रभावित हो गये। ओंकारनाथ को वह स्वार्थी समझते थे, मिरज़ा खुर्शेद को ग़ैरज़िम्मेदार और गोविन्दी को अयोग्य। मेहता की बात में चरित्र, अध्ययन और सद्भाव की शक्ति थी।
सहसा मेहता ने पूछा -- आपने अपनी देवीजी से भी इस विषय में राय ली?
खन्ना ने सकुचाते हुए कहा -- हाँ, पूछा था।
'उनकी क्या राय थी? '
'वही जो आप की है। '
'मुझे यही आशा थी। और आप उस विदुषी को अयोग्य समझते हैं। '
उसी वक़्त मालती आ पहुँची और खन्ना को देखकर बोली -- अच्छा, आप विराज रहे हैं? मैंने मेहताजी की आज दावत की है। सभी चीज़ें अपने हाथ से पकायी हैं। आपको भी नेवता देती हूँ। गोविन्दी देवी से आपका यह अपराध क्षमा करा दूँगी।
खन्ना को कुतूहल हुआ। अब मालती अपने हाथों से खाना पकाने लगी है? मालती, वही मालती, जो ख़ुद कभी अपने जूते न पहनती थी, जो ख़ुद कभी बिजली का बटन तक न दबाती थी, विलास और विनोद ही जिसका जीवन था। मुस्कराकर कहा -- अगर आपने पकाया है, तो ज़रूर खाऊँगा। मैं तो कभी सोच ही न सकता था कि आप पाक-कला में भी निपुण हैं।
मालती निःसंकोच भाव से बोली -- इन्होंने मार-मारकर वैद्य बना दिया। इनका हुक्म कैसे टाल सकती। पुरुष देवता ठहरे।
खन्ना ने इस व्यंग का आनन्द लेकर मेहता की ओर आँखें मारते हुए कहा -- पुरुष तो आपके लिए इतने सम्मान की वस्तु न थी।
मालती झेंपी नहीं। इस संकोच का आशय समझकर जोश-भरे स्वर में बोली -- लेकिन अब हो गयी हूँ; इसलिए कि मैंने पुरुष का जो रूप अपने परिचितों की परिधि में देखा था, उससे यह कहीं सुन्दर है। पुरुष इतना सुन्दर, इतना कोमल हृदय ...।
मेहता ने मालती की ओर दीन-भाव से देखा और बोले -- नहीं मालती, मुझ पर दया करो, नहीं मैं यहाँ से भाग जाऊँगा।
इन दिनों जो कोई मालती से मिलता, वह उससे मेहता की तारीफ़ों के पुल बाँध देती, जैसे कोई नवदीक्षित अपने नये विश्वासों का ढिंढोरा पीटता फिरे। सुरुचि का ध्यान भी उसे न रहता। और बेचारे मेहता दिल में कटकर रह जाते थे। वह कड़ी और कड़वी आलोचना तो बड़े शौक़ से सुनते थे; लेकिन अपनी तारीफ़ सुनकर जैसे बेवक़ूफ़ बन जाते थे; मुँह ज़रा-सा निकल आता था, जैसे कोई फ़बती छा गयी हो। और मालती उन औरतों में न थी, जो भीतर रह सके। वह बाहर ही रह सकती थी, पहले भी और अब भी; व्यवहार में भी, विचार में भी। मन में कुछ रखना वह न जानती थी। जैसे एक अच्छी साड़ी पाकर वह उसे पहनने के लिए अधीर हो जाती थी, उसी तरह मन में कोई सुन्दर भाव आये, तो वह उसे प्रकट किये बिना चैन न पाती थी।
मालती ने और समीप आकर उनकी पीठ पर हाथ रखकर मानो उनकी रक्षा करते हुए कहा -- अच्छा भागो नहीं, अब कुछ न कहूँगी। मालूम होता है, तुम्हें अपनी निन्दा ज़्यादा पसन्द है। तो निन्दा ही सुनो -- खन्नाजी, यह महाशय मुझ पर अपने प्रेम का जाल ... शक्कर-मिल की चिमनी यहाँ से साफ़ नज़र आती थी।
खन्ना ने उसकी तरफ़ देखा। वह चिमनी खन्ना के कीर्तिस्तम्भ की भाँति आकाश में सिर उठाये खड़ी थी। खन्ना की आँखों में अभिमान चमक उठा। इसी वक़्त उन्हें मिल के दफ़्तर में जाना है। वहाँ डायरेक्टरों की एक अर्जेंट मीटिंग करनी होगी और इस परिस्थिति को उन्हें समझाना होगा और इस समस्या को हल करने का उपाय भी बतलाना होगा। मगर चिमनी के पास यह धुआँ कहाँ से उठ रहा है। देखते-देखते सारा आकाश वैलून की भाँति धुएँ से भर गया। सबों ने सशंक होकर उधर देखा। कहीं आग तो नहीं लग गयी? आग ही मालूम होती है। सहसा सामने सड़क पर हज़ारों आदमी मिल की तरफ़ दौड़े जाते नज़र आये।
खन्ना ने खड़े होकर ज़ोर से पूछा -- तुम लोग कहाँ दौड़े जा रहे हो?
एक आदमी ने रुककर कहा -- अजी, शक्कर-मिल में आग लग गयी। आप देख नहीं रहे हैं?
खन्ना ने मेहता की ओर देखा और मेहता ने खन्ना की ओर। मालती दौड़ी हुई बँगले में गयी और अपने जूते पहन आयी। अफ़सोस और शिकायत करने का अवसर न था। किसी के मुँह से एक बात न निकली। ख़तरे में हमारी चेतना अन्तमुर्खी हो जाती है। खन्ना की कार खड़ी थी ही। तीनों आदमी घबड़ाये हुए आकर बैठे और मिल की तरफ़ भागे। चौरस्ते पर पहुँचे, तो देखा, सारा शहर मिल की ओर उमड़ा चला आ रहा है। आग में आदमियों को खींचने का जादू है। कार आगे न बढ़ सकी।
मेहता ने पूछा -- आग-बीमा तो करा लिया था न?
खन्ना ने लम्बी साँस खींचकर कहा -- कहाँ भाई, अभी तो लिखा-पढ़ी हो रही थी। क्या जानता था, यह आफ़त आनेवाली है।
कार वहीं राम-आसरे छोड़ दी गयी और तीनों आदमी भीड़ चीरते हुए मिल के सामने जा पहुँचे। देखा तो अग्नि का एक सागर आकाश में उमड़ रहा था। अग्नि की उन्मत्त लहरें एक-पर-एक, दाँत पीसती थीं, जीभ लपलपाती थीं जैसे आकाश को भी निगल जायँगी, उस अग्नि-समुद्र के नीचे ऐसा धुआँ छाया था, मानो सावन की घटा कालिख में नहाकर नीचे उतर आयी हो। उसके ऊपर जैसे आग का थरथराता हुआ, उबलता हुआ हिमाचल खड़ा था। हाते में लाखों आदमियों की भीड़ थी, पुलिस भी थी, फ़ायर ब्रिगेड भी, सेवा-समितियों के सेवक भी; पर सब-के-सब आग की भीषणता से मानो शिथिल हो गये हों। फ़ायर ब्रिगेड के छींटे उस अग्नि-सागर में जाकर जैसे बुझ जाते थे। ईंटें जल रही थीं, लोहे के गार्डर जल रहे थे और पिघली हुई शक्कर के परनाले चारों तरफ़ बह रहे थे। और तो और, ज़मीन से भी ज्वाला निकल रही थी।
दूर से मेहता और खन्ना को यह आश्चर्य हो रहा था कि इतने आदमी खड़े तमाशा क्यों देख रहे हैं, आग बुझाने में मदद क्यों नहीं करते; मगर अब इन्हें भी ज्ञात हुआ कि तमाशा देखने के सिवा और कुछ करना अपने वश से बाहर है। मिल की दीवारों से पचास गज के अन्दर जाना जान-जोख़िम था। ईट और पत्थर के टुकड़े चटाक-चटाक टूटकर उछल रहे थे। कभी-कभी हवा का रुख़ इधर हो जाता था, तो भगदड़ पड़ जाती थी। ये तीनों आदमी भीड़ के पीछे खड़े थे। कुछ समझ में न आता था, क्या करें। आख़िर आग लगी कैसे! और इतनी जल्द फैल कैसे गयी? क्या पहले किसी ने देखा ही नहीं? या देखकर भी बुझाने का प्रयास न किया? इस तरह के प्रश्न सभी के मन में उठ रहे थे; मगर वहाँ पूछें किससे, मिल के कर्मचारी होंगे तो ज़रूर; लेकिन उस भीड़ में उनका पता मिलना कठिन था।
सहसा हवा का इतना तेज़ झोंका आया कि आग की लपटें नीची होकर इधर लपकीं, जैसे समुद्र में ज्वार आ गया हो। लोग सिर पर पाँव रखकर भागे। एक दूसरे पर गिरते, रेलते, जैसे कोई शेर झपटा आता हो। अग्नि-ज्वालाएँ जैसे सजीव हो गयी थीं, सचेष्ट भी, जैसे कोई शेषनाग अपने सह्रस मुख से आग फुँकार रहा हो। कितने ही आदमी तो इस रेले में कुचल गये। खन्ना मुँह के बल गिर पड़े, मालती को मेहताजी दोनों हाथों से पकड़े हुए थे, नहीं ज़रूर कुचल गयी होतीं?
तीनों आदमी हाते की दीवार के पास एक इमली के पेड़ के नीचे आकर रुके। खन्ना एक प्रकार की चेतना-शून्य तन्मयता से मिल की चिमनी की ओर टकटकी लगाये खड़े थे। मेहता ने पूछा -- आपको ज़्यादा चोट तो नहीं आयी?
खन्ना ने कोई जवाब न दिया। उसी तरफ़ ताकते रहे। उनकी आँखों में वह शून्यता थी, जो विक्षिप्तता का लक्षण है। मेहता ने उनका हाथ पकड़कर फिर पूछा -- हम लोग यहाँ व्यर्थ खड़े हैं, मुझे भय होता है आपको चोट ज़्यादा आ गयी। आइए, लौट चलें।
खन्ना ने उनकी तरफ़ देखा और जैसे सनककर बोले -- जिनकी यह हरकत है, उन्हें मैं ख़ूब जानता हूँ। अगर उन्हें इसी में सन्तोष मिलता है, तो भगवान् उनका भला करे। मुझे कुछ परवा नहीं, कुछ परवा नहीं। कुछ परवा नहीं! मैं आज चाहूँ, तो ऐसी नयी मिल खड़ी कर सकता हूँ। जी हाँ, बिलकुल नयी मिल खड़ी कर सकता हूँ। ये लोग मुझे क्या समझते हैं? मिल ने मुझे नहीं बनाया, मैंने मिल को बनाया। और मैं फिर बना सकता हूँ; मगर जिनकी यह हरकत है, उन्हें मैं ख़ाक में मिला दूँगा। मुझे सब मालूम है, रत्ती-रत्ती मालूम है।
मेहता ने उनका चेहरा और उनकी चेष्टा देखी और घबराकर बोले -- चलिए, आपको घर पहुँचा दूँ। आपकी तबीयत अच्छी नहीं है।

खन्ना ने क़हक़हा मार कर कहा -- मेरी तबीयत अच्छी नहीं है! इसलिए कि मिल जल गयी। ऐसी मिलें मैं चुटकियों में खोल सकता हूँ। मेरा नाम खन्ना है, चन्द्रप्रकाश खन्ना! मैंने अपना सब कुछ इस मिल में लगा दिया। पहली मिल में हमने २० प्रतिशत नफ़ा दिया। मैंने प्रोत्साहित होकर यह मिल खोली। इसमें आधे रुपए मेरे हैं। मैंने बैंक के दो लाख इस मिल में लगा दिये। मैं एक घंटा नहीं, आध घंटा पहले, दस लाख का आदमी था। जी हाँ, दस लाख; मगर इस वक़्त फ़ाकेमस्त हूँ -- नहीं दिवालिया हूँ! मुझे बैंक को दो लाख देना है। जिस मकान में रहता हूँ, वह अब मेरा नहीं है। जिस बर्तन में खाता हूँ, वह भी अब मेरा नहीं है। बैंक से मैं निकाल दिया जाऊँगा। जिस खन्ना को देखकर लोग जलते थे, वह खन्ना अब धूल में मिल गया है। समाज में अब मेरा कोई स्थान नहीं है, मेरे मित्र मुझे अपने विश्वास का पात्र नहीं, दया का पात्र समझेंगे। मेरे शत्रु मुझसे जलेंगे नहीं, मुझ पर हँसेंगे। आप नहीं जानते मिस्टर मेहता, मैंने अपने सिद्धान्तों की कितनी हत्या की है। कितनी रिश्वतें दी हैं, कितनी रिश्वतें ली हैं। किसानों की ऊख तौलने के लिए कैसे आदमी रखे, कैसे नक़ली बाट रखे। क्या कीजिएगा, यह सब सुनकर; लेकिन खन्ना अपनी यह दुर्दशा कराने के लिए क्यों ज़िन्दा रहे। जो कुछ होना है हो, दुनिया जितना चाहे हँसे, मित्र लोग जितना चाहें अफ़सोस करें, लोग जितनी गालियाँ देना चाहें दें। खन्ना अपनी आँखों से देखने और अपने कानों से सुनने के लिए जीता न रहेगा। वह बेहया नहीं, बे ग़ैरत नहीं है!

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